पूरी दुनिया में देखा जाय तो इक्का दुक्का को छोड़ कर अधिकांश देशों में शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही। लोकतंत्र यानि कि जनता द्वारा जनता के लिए चुनी गई जनता की सरकार। अब इस लोकतंत्र के तीन स्तंभ तो सभी जानते हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। जिनके कार्यक्षेत्र अलग अलग हैं। कोई एक दूसरे के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं करता लेकिन मौका पड़ने पर यही तीनों एक दूसरे पर प्रकारांतर से अंकुश लगाते हैं। हालांकि वर्तमान युग में पिछले कई दशकों से ये तीनों स्तंभ अपने स्वार्थों के चलते या यूं कहें कि भ्रष्टाचार के चलते 'तूं मेरी पीठ खुजा मैं तेरी' वाले सिस्टम से चलते दिखाई पड़ते हैं।
अब बात करते हैं मीडिया की। तो इसे अनॉफिशियली लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में प्रचारित किया जाता है। इसका काम तीनों आधिकारिक स्तंभों की निगरानी करना है, जनता के लिए। और इसके लिए उसके लिए इसके पास कोई सांवैधानिक अधिकार नहीं है। इसके पास सवाल करने का अधिकार है तो ये अधिकार तो हर आम आदमी के पास है। फर्क सिर्फ इतना है मीडिया की अप्रोच उस तक है जिससे सवाल किया जाना चाहिए जबकि आम आदमी वहां तक आसानी से पहुंच नहीं पाता। और अगर अभी पहुंच भी जाता है अधिकांश मामलों में सवाल अनसुने रह जाते हैं। पहले तीन स्तंभों में कार्यरत लोगों पर होने वाले खर्च सिस्टम उठाता है जो जनता के टैक्स से होता है। जबकि मीडिया कर्मी इसके लिए मीडिया संस्थान चलाने वाले मालिकों पर निर्भर होता है और मालिक इसके लिए कारपोरेट या सरकार से मिलने वाले विज्ञापन पर निर्भर होता है। ऐसे में मीडिया स्वतंत्र और निष्पक्ष हो ही नहीं सकता। जो कि समय-समय पर परिलक्षित होता भी रहता है।
मेरा स्पष्ट मानना है कि एक स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र में मीडिया का निष्पक्ष व स्वतंत्र होना नितांत आवश्यक है। और इसके लिए मीडिया का आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना आवश्यक है। लोकतंत्र में अगर मेरे जैसी सोच के मीडियाकर्मियों की आर्थिक जरूरतों की प्रतिपूर्ति जनता करे तो हमलोग एक जनसरोकार वाला स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया दे सकते हैं। और एक स्वतंत्र एवं निष्पक्ष मीडिया के लिए बहुत आवश्यक है कि वह लोकतांत्रिक तरीके से चले। वहां भी खबरों और मुद्दों के चयन में लोकतांत्रिक तरीके से पारदर्शी व्यवस्था हो। आज किसी भी मीडिया संस्थान में संपादक की स्थिति अब सिर्फ नौकरी तक सीमित रह गई है। जो अपनी नौकरी बचाने के लिए सारे हथकंडे अपनाता है। अपनी नौकरी बचाने के लिए वो एक पत्रकार की नौकरी खाने में कोई संकोच नहीं करता। जबकि पहले के संपादक, मालिक और पत्रकार के बीच शॉकअॉब्जर्वर का काम करते थे। मालिक की नाराज़गी खुद ही झेल कर अपने अधीनस्थ पर आंच नहीं आने देते थे। पहले संपादक तय करता था कि आज क्या खबर मुख्य होगी और मुद्दा क्या उठाया जाएगा। अब मालिक तय करते हैं। ज्यादातर मीडिया संस्थानों के मालिक ही संपादक के रूप में अपना नाम प्रिंटलाइन में छपवाते हैं। भले ही एक लाइन इंट्रो न लिख सकें। इतना ही नहीं अब आज के अधिकांश संपादक भी अपने संपादकीय नहीं लिख सकते हैं। क्योंकि संपादक अब सरकार और मालिक के बीच का लाइजनर बन गया है। संपादक आज वो होता है जो पैसा कमा कर मलिकों की जेब भरने का काम करता है। कभी पत्रकारों के वेलफेयर के लिये बना एक ट्रस्ट आज मालिकों का ट्रस्ट बन कर रह गया है। पत्रकारों की सुनवाई के लिए बनी काउंसिल में सरकार के चरण चांपने वाले जगह पाते हैं। और केंद्र समेत सभी राज्यों के मीडिया से संबंधित सूचना विभाग आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं और सरकार व मालिकों के बीच लाइजनिंग कर अपनी ड्यूटी पूरी कर रहे हैं।
इतना ही नहीं जो पत्रकार संगठन भी कभी पत्रकार हितों के लिए बने थे वे आज दशकों से अपने अपने नेताओं के अधिनायकत्व में चल रहे हैं। जो एक बार कुर्सी पर आ गया वो मरते दम तक कुर्सी छोड़ना नहीं चाहता। ज्यादातर संगठन तो चुनाव कराते ही नहीं और जो कराते भी हैं तो चुनाव के नाम पर लीपापोती करते हैं। जोड़ तोड़ कर तिकड़मबाजी कर खुद को चुनवा लेते हैं। नहीं तो दो नेताओं के अहंकार की लड़ाई में संगठन के दो फ़ाड़ हो रहे हैं।
इसलिए मेरा यहां पर स्पष्ट मानना है कि क्यों न जनता के सहयोग से एक इंडीपेंडेंट मीडिया की स्थापना हो। असल मुद्दयी पत्रकारों के लिए एक ट्रस्ट बने जो नो प्राफिट नो लॉस के आधार पर अपना अखबार और चैनल निकाले। जन सरोकारों से जुड़े पत्रकार जो चाहते हैं कि देश में एक स्वतंत्र विचार निष्पक्ष मीडिया हो। जिसमें कोई मालिक नहीं हो। जो सिर्फ पत्रकारों का ट्रस्ट हो। इसी ट्रस्ट के माध्यम से जरूरतमंद पत्रकारों की मदद हो। किसी पत्रकार की अथवा उसके परिवार में किसी की तबियत खराब होने पर ट्रस्ट के सहयोग से इलाज हो जाय। जरूरतमंद पत्रकारों के बच्चों की पढ़ाई में मदद हो जाय। पत्रकारों के मेधावी बच्चों के लिए स्कालरशिप मिल जाय। इतना ही नहीं सच्चे और ईमानदार पत्रकारों की नई पौध तैयार करने के लिए ट्रस्ट एक पत्रकारिता इंस्टीट्यूट खोले। जिसमें सीनियर लोग नये बच्चों को पत्रकारिता पढ़ाएं और सिखाएं। पत्रकारों के वेलफेयर के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए ट्रस्ट कंपनियों से सीएसआर फंड में डोनेशन ले सकता है। सरकार भी चाहे तो मदद करे लेकिन इसके एवज में ट्रस्ट अपनी स्वतंत्रता से कोई समझौता नहीं करेगा। हम सीधे जनता से इनकम टैक्स छूट के लिए किए जाने वाले डोनेशन ले सकते हैं। सैलरी वाले पत्रकार खुद भी इस ट्रस्ट को डोनेट कर इनकमटैक्स की बचत कर सकते हैं। और भी बहुत कुछ सोच रखा है। पूरी कार्ययोजना दिमाग में है।
साथियों ये मेरी सोच है। एक विज़न है कि कैसे देश में एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया की स्थापना हो। इसी सोच के साथ मैं चुनाव भी लड़ा था कि मौका मिला तो इसे अमल में लाउंगा। कोई बात नहीं फिर भी करुंगा। आप लोगों के सहयोग से करुंगा। बहुत से साथी कहते हैं कि आज के स्वार्थी और लालची समय में ये असंभव सा है। मैं मानता हूं कि अभी भी सकारात्मक ऊर्जा भरी सोच के लोग हैं समाज में। और कोई भी कार्य असंभव नहीं। हां शुरुआत में थोड़ी मुश्किल जरूर होती है। लेकिन जब लोग नीयत देख लेते हैं और ईमानदार कोशिश देख लेते हैं तो सहयोग बिना मांगे मिलता है।
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