बहुफसली तकनीक ने कसानों को बनाया रोल मॉडल - बंजर भूमि पर लहलहा रही है फसल - दिनेश व घसीटा दोनों किसानों ने तकनीक को समझकर उसे हकीकत का पहनाया जामा

लखनऊ(सौम्य भारत)। अापको एक ऐसे किसान के बारे में बताते हैं, जो अनपढ़ होने के बाद भी कृषि वैज्ञानिकों की तकनीक को अपनाकर युवा वैज्ञानिकों का रोड मॉडल बन गया है। हम बात कर रहे हैं मोहनलालगंज के पटवाखेड़ा निवासी दिनेश की। नहर के किनारे बंजर हो चुकी आधा हेक्टेयर भूमि में 2013 तक कुछ नहीं होता था। ऊसर की वजह से कुछ भी पैदा नहीं होता था। खुद के खेत होने के बावजूद दूसरों के खेत को बटाई पर लेकर और मजदूरी करके परिवार चलाने वाले दिनेश के सामने मजदूरी के सिवा और कोई रास्ता नहीं था। वर्ष 2013 में पुरानी जेल रोड स्थित केंद्रीय लवणता अनुसंधान केंद्र के वैज्ञानिकों की टीम ऊसर सुधार के लिए गई तो वह पटवा खेड़ा में दिनेश के खेतों पर रुक गई। बस फिर क्या था। दिनेश ने वैज्ञानिकों की सलाह मानी और केंंद्र की ओर से मदद की गई। पहले तालाब खोदा गया और फर उसकी मिट्टी से तालाब को चारो ओर से ऊंचा किया गया। तालाब से निकली मिट्टी को समतल कर खेत के ऊपर तक फैला दिया गया। पहले गेहूं की खेती और बाद में सब्जियों की खेती होने लगी। दिनेश अब न केवल बंजर भूमि पर फसल उगाते हैं बल्कि तालाब में मछली पालन कर अतिरिक्त कमाई भी करते हैं। उनको देखकर पास के घसीटा ही नहीं कई किसानों ने दिनेश की मेहनत और बहुफसली तकनीक को अपना कर बंजर भूमि को उपजाऊ बना रहे हैं। अब युवा कृषि वैज्ञानिकों के दिनेश रोल मॉडल बन गए हैं।उनक खेतों पर वैज्ञानिक न केवल शोध करते हैं बल्कि अनपढ़ दिनेश तकनीक के इस्तेमाल की बरीकियां भी सीखते हैं। दिनेश बताते हैं कि मछली पालन से एक साल में एक लाख रुपये की खर्च निकालकर आमदनी होती है। फसल के अलावा सीजन के अनुरूप सब्जी की खेती करते हैं। सब्जी से हर रोज एक हजार रुपये क आमदनी होती है। खुद के साथ ही गांव के कई लोगाें को वह काम देकर उनकी रोजी रोटी चलाने का काम कर रहे हैं। इस बात को लेकर क्षेत्रीय केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान केंद्र लखनऊ के अध्यक्ष विनय कुमार मिश्रा ने बताया कि कम जमीन में अधिक उत्पादन और ऊसर बंजर जमीन में फसल उगाने की तकनीक भले ही हमारी रही हो, लेकिन दिनेश और घसीटा दो किसानों ने तकनीक को समझकर उसे हकीकत का जामा पहनाया। अब तो कई राज्यों और जिलों के शोधार्थी और कृषि वैज्ञानिक आकर तकनीक की बारीकियां भी किसानों से सीखते हैं। इस तकनीक से नहर के किनारे बेकार पड़ी जमीन पर फसल उगाई जा सकती है। प्रदेश में ऐसी करीब दो लाख हेक्टेयर भूमि है जिस पर कुछ नहीं पैदा होता।