इंसान और शैतान होने का फर्क फिर मिटा है: रीता सिंह


देश एक बार फिर शर्मिंदा है। इंसान और शैतान होने का फर्क फिर मिटा है। फिर प्रमाणित हुआ है कि सिस्टम गहरी निद्रा में है और शरीर के शिकारी आजाद हैं। तेलंगाना राज्य के हैदराबाद में डॉक्टर बिटिया के साथ सामूहिक दुष्कर्म और हत्या न सिर्फ राज्य प्रशासन की घोर लापरवाही को नतीजा है बल्कि यह भी तस्दीक कराता है कि राज्य में जंगल का कानून है और अपराधियों के हौसले बुलंद हैं। अगर हैदराबाद की पुलिस अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रही होती तो शायद यह रुह कंपा देने वाली घटना नहीं घटती। अब जब देश सड़क पर है तो तेलंगाना की सत्ता लज्जित और लुटी-पिटी नजर आ रही है। रहनुमाओं के चेहरे पर बदहवासी और बेबसी की बेशर्म पीड़ा है। आखिर यह कैसा राज्य व समाज है जहां दरिंदों के आगे कानून-व्यवस्था दम तोड़ रही है और मानवता चीत्कारें भर रही है? यह कैसा समाज है जहां रिश्ते बेमानी हो चुके हैं और आंखों का पानी मर चुका है? यह कैसा समाज और कैसी शासन व्यवस्था है जहां इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाओं से सत्ता उद्वेलित तक नहीं है? यह कैसा लोकतंत्र है जहां हत्या, लूट और बलात्कार के आरोपियों को सर्वोच्च पंचायत में पहुंचने की आजादी है? यह कैसा जनतंत्र है जिसके अलंबरदारों पर समाज को तोड़ने और रौंदने के घिनौने आरोप हैं? यह सभ्य समाज की कैसी दृष्टिबोध है जो ऐसे अपराधियों को अपना जनप्रतिनिधि चुन रही है जिनके पास इंसानियत और हैवानियत का फर्क समझने की संवेदना तक नहीं है? समझना कठिन हो गया है कि आखिर हमारे संगठित, उदार और संवेदना युक्त समाज को किसकी नजर लग गयी है जो अपनी उदारता व संवेदनशीलता की परिधि से बाहर निकल निर्ममता और संवेदनहीनता का बार-बार परिचय दे रहा है। जो भारतीय समाज कभी अपनी सहिष्णुता, सहृदयता और दयालुता के लिए विश्व प्रसिद्ध था वह आज अपनी नृशंसता और हृदयहीनता से मानवता का दहन कर रहा है। इस घटिया और बेशर्म लोकतांत्रिक व्यवस्था से तो वह कम वैज्ञानिक व कम आधुनिक प्राचीन समाज ही बेहतर था जहां इंसानी रिश्ते पूजे जाते थे। जहां नारी को देवी स्वरुपा मान उसकी आराधना की जाती थी। जहां समाज और राष्ट्र धर्म और नैतिक नियमों से नियंत्रित होते थे। आज हमने लोकतंत्र के खोल तो जरुर पहन लिए हैं लेकिन बीमार मानसिकता का परित्याग न हीं कर पाए हैं। आजादी के बाद उम्मीद जगी थी की समाज में नारी का सम्मान बढ़ेगा। समाज सभ्य होगा। जीवंतता आएगी। राष्ट्र व समाज संविधान के प्रावधानों और नैतिक नियमों से निर्देशित होगा। लेकिन महिलाओं पर बढ़ते अत्याचार ने लोकतंत्र और कानून के शासन को कठघरे में खड़ा कर दिया है। एक कल्याणकारी राज्य का उत्तरदायित्व होता है कि वह समाज को सुरक्षा दे। उसकी बेहतरी के लिए काम करे। लेकिन आश्चर्य है कि जिनके कंधों पर सभ्य समाज के निर्माण की जिम्मेदारी है वे खुद कठघरे में हैं। स्वयं उन पर ही नैतिक मूल्यों को खाने-पचाने, स्खलित और नष्ट-भ्रष्ट करने के संगीन आरोप हैं। हैदराबाद की घटना महज कुछ लोगों की घिनौनी कारस्तानी व नीचता की बानगी भर नहीं है बल्कि यह हमारे समूचे तंत्र की अघोरतम् कारस्तानी की शर्मनाक कारस्तानी भी है। इस घटना से साफ है कि हम सभ्य, और लोकतांत्रिक समाज में होने का बस चोंगा भर ओढ़ रखे हैं। असल में हम अभी भी आदिम समाज की फूहड़ता, जड़ता, मूल्यहीनता और लंपट चारित्रिक दुर्बलता से उबर नहीं पाए हैं। जिस समाज में 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता' का पाठ पढ़ाया जाता हो वहां नरपिशाचों के लिए जगह ही क्यों है? लेकिन देखिए न! हम जिस व्यवस्था को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था बता फूले नहीं समाते है वह अब दरिंदों का अड्डा बनती जा रही है। इस व्यवस्था में अपराधी निडर और बेखौफ हैं। वे मदहोश हैं। उनके मन में कानून का भय नहीं है। उनकी ताकत के आगे शासन व्यवस्था नतमस्तक है। सवाल लाजिमी है कि आखिर इन हालातों के लिए कौन जिम्मेदार है? सरकार या समाज? हम चाहे इन घटनाओं पर जितना भी घडि़याली आंसू बहा लें लेकिन तब तक कुछ होने-जाने वाला नहीं जब तक कि समाज के इन नरपिशाचों को उनका असली जगह नहीं दिखाया जाएगा। समझा जा रहा था कि निर्भया कानून लागू होने के बाद दुष्कर्म की घटनाओं में कमी आएगी। देश का चरित्र बदलेगा। तंत्र की सक्रियता से व्यवस्था में सुधार होगा। पुलिस की संवेदना और जवाबदेही बढ़ेगी। लेकिन इस घटना ने सारे भ्रम तोड़ दिए हैं। सवाल लाजिमी है कि महिलाओं पर होने वाला अत्याचार कब थमेगा? उनकी सुरक्षा की गारंटी कैसे संभव होगी? अगर कड़े कानूनी प्रावधानों के बावजूद भी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में कमी नहीं आ रही है तो साफ है कि गुनाहगारों के मन में कानून का भय नहीं है। दूराचारी कानून की खामियों और समाज की संवेदनहीनता का फायदा उठाकर बच जा रहे हैं। एक आंकडें के मुताबिक महिलाओं पर होने वाले समग्र अत्याचारों में सजा केवल 30 फीसदी गुनाहगारों को ही मिल पा रहा है। बाकी तीन चौथाई बच जा रहे हैं। बेहतर होगा कि सरकार कड़े कानूनों का प्रावधान कर गुनाहगारों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करे। साथ ही समाज को भी समझना होगा कि वह अपने उत्तरदायित्वों को सरकार के कंधे पर ठेलकर निश्चिंत नहीं हो सकता। यहां समझना होगा कि सभ्य समाज के निर्माण की जिम्मेदारी जितनी राजसत्ता की है उतना ही समाज की भी। बहेलियों के भरोसे पंछियों के नस्ल को छोड़ा नहीं जा सकता।